अमेरिका के प्रसिद्ध लेखक सूसन जार्ज की पुस्तक आधी दुनिया भूखी क्यों ? (हाऊ द अदर हाफ डाइज) उन्होंने लिखा है कि भूख ईश्वर का दिया हुआ कोई अभिषाप नहीं है यह इस दुनिया के लोगों द्वारा निर्मित किया गया एक षडयंत्र है। हमारा देश एक धार्मिक देश है इस देश में भूख को ईश्वर का एक अभिशाप माना जाता है और ईश्वर से ही भूख और गरीबी को दूर करने की प्रार्थना की जाती है। इसके लिए बहुत सारे कष्ट भी उठाये जाते हैं। हमारे देश के इन दिनों के धार्मिक माहौल में इस समय यदि देवी देवता पृथ्वी पर उतर आए तो वह भी संशय में पढ़ जायेंगे कि उनकी इतनी पूजा-अर्चना तो उनकी खुद की दुनिया में भी नहीं होती जितनी कि इस पृथ्वी पर हो रही है। परंतु ईश्वर धार्मिक भावनाओं से भरे हुए इस माहौल में गरीबों और भूखों को देखकर भी सोच में पढ़ जाते होंगे कि इस पृथ्वी पर मेरे एक अंश के रूप में मनुष्य इतना धनी, समर्थ और सुखी है वहीं मेरे ही एक अंश के करोड़ों रुप इतनी गरीब और भूखें क्यों है?
ईश्वर ने ऐसी कोई व्यवस्था नहीं की है कि कुछ लोग भरपेट रहे और कुछ लोग भूखें रहे। ईश्वर भी सोचते होंगे कि क्या ईश्वर के एक अंश के प्रतिरूप को एक मनुष्य दूसरे मनुष्य में नहीं देख पा रहा है, गरीबों और भूखों को सुख बनाकर क्यों नहीं यह मुझे पूर्ण सुखी ईश्वर नहीं बना देते। ईश्वर भी पूर्ण रूप से तभी सुखी होंगे जब उसके प्रतिरूप मनुष्य भी पूर्णरूप से सुखी होंगे।
इस संबंध में विवेकानंद बहुत ही कठोर शब्दों का प्रयोग करते हुए कहते है कि ताकत के बल पर निर्बल की असमर्थता का फायदा उठाना धनीमानी लोगों का विशेषाधिकार रहा है और इस विशेषाधिकार को ध्वस्त करना ही हर युग की नैतिकता रहा है। हम यह सब कहानियां सतयुग, द्वापर, त्रेता युग में देख चुके है और अब इस कलयुग में देख रहे है परंतु इस कलियुग में गरीबों की ओर से लडऩे वालों का कहीं पता नहीं लगता है। न जाने इन लोगों के लिए ईश्वर कब अवतार लेंगे। इस तरह विवेकानंद बताते है कि धर्म का वास्तविक स्वरूप क्या है और क्या होना चाहिए। हमारे देश में धार्मिक नेतृत्व का जो स्वरूप उभरकर सामने आ रहा है वह कई-कई प्रश्र खड़े कर रहा है। विवेकानंद गरीबों को दरिद्र नारायण कहते थे और दरिद्र नारायण की सेवा को ही धर्म का सार मानते थे। इस समय हमारा देश अपने इतिहास के सबसे बड़े आर्थिक संकट से गुजर रहा है। देश के एक प्रतिशत लोगों के पास देश की कुल संपत्ति का लगभग 58.8 प्रतिशत एकत्रित हो गया है और आगामी कुछ ही वर्षों में यह बढ़कर 8० प्रतिशत तक पहुंच जायेगा। करोड़ों लोगों की संपत्तियां बिक रही है और कुछ लोगों की संपत्तियां निरंतर बढ़ती जा रही है। आगामी कुछ वर्षों में यह स्थिति भयावह सामाजिक स्थिति के रूप में सामने आने वाली है। आजकल के सत्ताधारी दल के कई बड़े नेता इसका आभास देने लगे है। जर्मन के प्रसिद्ध कवि बरटोल्ड ब्रेख्त ने कहा है कि अकाल अनाज के व्यापार द्वारा आयोजित किये जाते है। सुसन जार्ज भी कहते है कि सरकारें जनसंख्या की समस्या से तो निपटना चाहती है पर वह इस समस्या की जड़ याने गरीबी, सामाजिक अन्याय, अस्वास्थ्य, प्राथमिक शिक्षा और निरीक्षरता की बुनियादी समस्याओं से बचना चाहती है। केंद्र सरकार का अनुमान है कि इस वर्ष 35 लाख टन खाद्यान्न का उत्पादन कम होगा। हमारे सामने बहुत कठिन सामाजिक समस्या पैदा होने वाली है। इतना अनाज विदेशों से आयात तो कर लिया जायेगा लेकिन किसानों को इतने अनाज का मिलने वाला लाभ नहीं मिल सकेगा। देश की 7० प्रतिशत जनसंख्या के सामने जब आर्थिक कठिनाई पैदा होगी तो वह एक नई तरह की सामाजिक समस्या को जन्म देने वाली सिद्ध होगी। यह समय समाज को प्रभावित करने का समय नहीं है बल्कि यह समस्या अपने समाज को प्रभावशाली बनाने का समय है।
ईश्वर ने ऐसी कोई व्यवस्था नहीं की है कि कुछ लोग भरपेट रहे और कुछ लोग भूखें रहे। ईश्वर भी सोचते होंगे कि क्या ईश्वर के एक अंश के प्रतिरूप को एक मनुष्य दूसरे मनुष्य में नहीं देख पा रहा है, गरीबों और भूखों को सुख बनाकर क्यों नहीं यह मुझे पूर्ण सुखी ईश्वर नहीं बना देते। ईश्वर भी पूर्ण रूप से तभी सुखी होंगे जब उसके प्रतिरूप मनुष्य भी पूर्णरूप से सुखी होंगे।
इस संबंध में विवेकानंद बहुत ही कठोर शब्दों का प्रयोग करते हुए कहते है कि ताकत के बल पर निर्बल की असमर्थता का फायदा उठाना धनीमानी लोगों का विशेषाधिकार रहा है और इस विशेषाधिकार को ध्वस्त करना ही हर युग की नैतिकता रहा है। हम यह सब कहानियां सतयुग, द्वापर, त्रेता युग में देख चुके है और अब इस कलयुग में देख रहे है परंतु इस कलियुग में गरीबों की ओर से लडऩे वालों का कहीं पता नहीं लगता है। न जाने इन लोगों के लिए ईश्वर कब अवतार लेंगे। इस तरह विवेकानंद बताते है कि धर्म का वास्तविक स्वरूप क्या है और क्या होना चाहिए। हमारे देश में धार्मिक नेतृत्व का जो स्वरूप उभरकर सामने आ रहा है वह कई-कई प्रश्र खड़े कर रहा है। विवेकानंद गरीबों को दरिद्र नारायण कहते थे और दरिद्र नारायण की सेवा को ही धर्म का सार मानते थे। इस समय हमारा देश अपने इतिहास के सबसे बड़े आर्थिक संकट से गुजर रहा है। देश के एक प्रतिशत लोगों के पास देश की कुल संपत्ति का लगभग 58.8 प्रतिशत एकत्रित हो गया है और आगामी कुछ ही वर्षों में यह बढ़कर 8० प्रतिशत तक पहुंच जायेगा। करोड़ों लोगों की संपत्तियां बिक रही है और कुछ लोगों की संपत्तियां निरंतर बढ़ती जा रही है। आगामी कुछ वर्षों में यह स्थिति भयावह सामाजिक स्थिति के रूप में सामने आने वाली है। आजकल के सत्ताधारी दल के कई बड़े नेता इसका आभास देने लगे है। जर्मन के प्रसिद्ध कवि बरटोल्ड ब्रेख्त ने कहा है कि अकाल अनाज के व्यापार द्वारा आयोजित किये जाते है। सुसन जार्ज भी कहते है कि सरकारें जनसंख्या की समस्या से तो निपटना चाहती है पर वह इस समस्या की जड़ याने गरीबी, सामाजिक अन्याय, अस्वास्थ्य, प्राथमिक शिक्षा और निरीक्षरता की बुनियादी समस्याओं से बचना चाहती है। केंद्र सरकार का अनुमान है कि इस वर्ष 35 लाख टन खाद्यान्न का उत्पादन कम होगा। हमारे सामने बहुत कठिन सामाजिक समस्या पैदा होने वाली है। इतना अनाज विदेशों से आयात तो कर लिया जायेगा लेकिन किसानों को इतने अनाज का मिलने वाला लाभ नहीं मिल सकेगा। देश की 7० प्रतिशत जनसंख्या के सामने जब आर्थिक कठिनाई पैदा होगी तो वह एक नई तरह की सामाजिक समस्या को जन्म देने वाली सिद्ध होगी। यह समय समाज को प्रभावित करने का समय नहीं है बल्कि यह समस्या अपने समाज को प्रभावशाली बनाने का समय है।