जंग तो खुद ही एक मसला है


खून अपना हो या पराया हो
नस्ल ए आदम का खून है आखिर
जंग मशरिक में हो या हो मगरिब में
अम्न ए आलम का खून है आखिर!
बम घरों पर गिरे कि सरहद पर
रूहे-तामीर जख्म खाती है
खेत अपने जलें या औरों के
जीस्त फाकों से तिलमिलाती है।
टैंक आगे बढ़ें या पीछे हटें
कोख धरती की बांझ होती है
फतेह का जश्न हो या हार का सोग
जिंदगी मय्यतों पे रोती है !
जंग तो खुद ही एक मसला है
जंग क्या मसओं का हल देगी
खून और आग आज बरसेगी
भूख और एहतियाज कल देगी!
इसलिए ए शरीफ इंसानों
जंग टलती रहे तो बेहतर है
आप और हम सभी के आंगन में
शम्मा जलती रहे तो बेहतर है!...
- साहिर लुधियानवी